चिंता की बात यह है कि बच्चे अपने पैरेंट्स की जरूरत ही जब नहीं समझ पा रहे हैं तो उनकी समस्या का फिलहाल हल होता दिख नहीं रहा है।
बुढ़ापा
न केवल चेहरे पर झुर्रियां लाता है, बल्कि हरेक दिन की नई-नई चुनौतियां
लेकर भी आता है। अकेलापन उन्हें सबसे ज्यादा खलता है, बात करने के लिए
तरसते हैं। अपने बच्चों की राह ताकते हैं, निराशा उन्हें इतना खलता है कि
उनका 77 पर्सेंट समय घर से बाहर गुजरता है, ताकि किसी से बात हो जाए। कोई
उनकी बात सुन लें, गप्पें मार ले।
‘जुग जुग जियेंगे’ नाम से हुए
सर्वे में अकेलेपन में जी रहे बुजुर्गों की यह सचाई सामने आई है। सर्वे के
नतीजे चौंकाने वाले हैं, क्योंकि बुजुर्गों को सबसे ज्यादा अकेलापन खलता
है, जबकि उनके बच्चों को लगता है कि फिजिकल हेल्थ उनकी सबसे बड़ी समस्या
है। चिंता की बात यह है कि बच्चे अपने पैरेंट्स की जरूरत ही जब नहीं समझ पा
रहे हैं तो उनकी समस्या का फिलहाल हल होता दिख नहीं रहा है। बच्चों का
सोचना था कि उनके पैरेंट्स का अधिकांश समय आराम करते हुए बीतता है, जबकि
4.8 पर्सेंट बुजुर्गों ने ही आराम की बात स्वीकार की। बच्चों की सोच और
पैरेंट्स की सोच में 55 पर्सेंट का यह अंतर बता रहा है कि सोच बिल्कुल
उल्टी है।
इस सर्वे से सामने आए तथ्य बुजुर्गों की देखभाल के लिए
सटीक रोडमैप विकसित करने के लिए आधारशिला के तौर पर काम कर सकते हैं। इस
सर्वे में 10000 वरिष्ठ नागरिकों को शामिल किया गया जिसमें 1000 दिल्ली के
थे। इसके अलावा, इसमें इन बुजुर्गों के बच्चों को भी शामिल किया गया जो कम
से कम पांच साल से अपने मां-बाप से दूर हैं।
मैक्स हास्पिटल के
एल्डर केयर स्पेशलिस्ट का कहना है कि अपने घर और बूढ़े मां बाप से दूर रह
रहे बच्चों की सोच में असमानता कई सवाल खड़ी करती है। जहां बच्चों की अपने
बूढ़े मां बाप के स्वास्थ्य के बारे में चिंता सही है, मां बाप की सामाजिक
जीवन और रोज जरूरतें पूरी करने में होने वाली परेशानी की चिंता मानसिक
स्वास्थ्य की ओर इशारा कर रहा है। भारत में पहले से ही 10.4 करोड़ सीनियर
सिटिजन हैं और 2050 तक इनकी संख्या तीन गुना से अधिक होकर 34 करोड़ पहुंचने
की संभावना है।
